व्रत के प्रारम्भ समय से लेकर उद्यापन करने तक व्रत के नियम-लाभ एवं व्रत-उपवास निर्णय

❀꧁ “ॐ हरि हर नमो नमःॐ” ꧂❀

व्रत प्रारम्भ समय एवं उद्यापन निर्णय

अस्तगते च गुरौ शुक्रे, बाले वृद्ध मलिम्लुचे।
उद्यापनमुपारम्भं, व्रतानां नैव कार्येत्॥१॥ (महर्षि गर्ग)

सौम्यवासराः सर्वकर्मसु भवंति सिद्धदा।
हस्त मैत्रमृग पुष्यत्रयुतरा अश्विपौष्ण शुभयोग सौख्यदाः॥२॥(मुक्तक संग्रह)

कुर्यादुद्यापनं चैव समाप्तौ यदुदीरितम्।
उद्यापनं विना यत्तु तव्रतं निष्फलं भवेत्॥३॥ (नंदिपुराण)

अर्थात्गुरु एवं शुक्र के उदय रहने पर भद्रादि कुयोग एवं मलमास त्याग कर, शुभ वारों में, अश्विनी, मृगशिरा, पुष्य, हस्त, तीनों उत्तरा, अनुराधा, रेवती नक्षत्रों में, शुभ योगों में व्रत प्रारंभ करने पर या उद्यापन करने पर मनोकामना पूर्ण होकर सुख मिलता है।

व्रत एवम् उपवास की परिभाषा एवं महत्व

वेदोक्तेन प्रकारेण कृच्छ्चान्द्रायणादिभि।
शरीरशोषणं यत् तत् तप इत्युच्यते बुधै॥

अर्थात् – व्रत एक प्रकार का तप हैं। इससे मानव की लौकिक एवं परलौकिक(अध्यात्मिक) उन्नति होती है। व्रत से पापादि की निवृत्ति होती है। व्रत से शरीर तप कर शुद्ध हो जाता है। फलस्वरूप रोग निरोधक क्षमता मानसिक शक्ति, बुद्धि चतुरता, उत्साह एवं शारीरिक शक्ति बढ़ती है। आराध्यदेव के प्रसन्न होने से जीवन काल में मनोकामनाएं पूर्ण होतीं हैं। एवं शरीर त्यागने के बाद सद्गति प्राप्त होती है।

“व्रत” एक संकल्प है और “उपवास” उस संकल्प को पाने का माध्यम। प्राचीन काल से ऋषियों और आचार्यों ने तपस्या, संयम और नियमों को व्रत का समानार्थक माना है। व्रत एवं उपवास, हिंदू संस्कृति एवं धर्म के प्राण हैं। व्रत-क्रिया संकल्प सत्कर्म अनुष्ठान का अंङ्ग है।

व्रतों पर वेद, धर्मशास्त्रों, पुराणों तथा वेदाङ्गों में बहुत कुछ कहा गया है। व्रतों पर व्रतराज, व्रतार्क, व्रतकौस्तुभ, जयसिंह कल्पद्रुम, मुक्तक संग्रह, हेमाद्रिव्रतखण्ड आदि अनेक लेख लिखे गये हैं।सकाम अथवा निष्काम संकल्प लेकर व्रत का पालन करना, यही व्रत कि परिभाषा है। राजा भोज के राजमार्तण्ड में २४ व्रतों का उल्लेख है। हेमादि में ७०० व्रतों के नाम बताए गए हैं।

व्रत के गुण

निज वर्णाश्रमाचार, निरतः शुद्ध मानसः।
अलुब्धः सत्यवादी च, सर्वभूत हिते रतः॥
पूर्वं निश्चयमाश्रित्य, यथावत् कर्मकारकः।
अवेदनिन्दको धीमानधिकारी व्रतादिशुः॥

अर्थात् – स्कन्द पुराण के अनुसार जो अपने वर्णाश्रम के आचार-विचार से रहते हैं, निष्कपट, निर्लोभी, सत्यवादी, सब प्राणियों पर दया भाव रखने वाले, वेद के अनुयायी, बुद्धिमान एवं निश्चयकर्मी ऐसे गुणवान पुरुष, स्त्री व्रत करने योग्य होते हैं।

ब्रह्मचर्य का पालन

प्रत्येक व्रत-उपवास में ब्रह्मचर्य का पालन अनिवार्य होता है। इसका मतलब है कि आपको यौन संबंध या किसी भी प्रकार का शारीरिक संबंध बनाने से बचना चाहिए, जिसमें चुंबन भी शामिल है। 

व्रत का उद्देश्य

व्रत का मुख्य उद्देश्य भगवान के प्रति समर्पण और आत्म-नियंत्रण करना है। ब्रह्मचर्य का पालन इस उद्देश्य को प्राप्त करने में मदद करता है।

व्रत के प्रकार

विभिन्न व्रतों के नियम अलग-अलग होते हैं। जैसे कि साप्ताहिक, पाक्षिक, त्रैमासिक, छह मासिक और वार्षिक व्रत। 

संयम

व्रत के दौरान संयम का पालन करना महत्वपूर्ण है आपको अपने शरीर और मन को नियंत्रित करना चाहिए।

नियम

हिंदू धर्म में हर एक पर्व पर व्रत का विशेष महत्व होता है, और उसे रखने के अलग-अलग नियम होते है। जैसे कि – सभी व्रतों के दिन प्रातः स्नान कर सूर्य को अर्घ्य देना चाहिए, व्रत के दिन जो विचार मन में आते हैं, उनकी एक छाप मस्तिष्क पर पड़ जाती है इसलिए व्रत में मन की पवित्रता और शुद्धता का विशेष ध्यान रखना चाहिए, व्रत के दिन जो वस्तु खाएं वह दान अवश्य करें, व्रत एक निश्चित अवधि तक अवश्य करना चाहिए। व्रत की समाप्ति पर ब्राह्मणों को भोजन कराकर दान करके ही पारण करना चाहिए। व्रत के दौरान ब्रह्मचर्य का पालन करें, सत्य का आचरण करें तथा सभी प्रकार के दुष्कृत्य (छल, दंभ, द्वेष, पाखण्ड, झूठ, काम, क्रोध, लोभ, मोह इत्यादि) से बचने का प्रयास करें। हिंदू धर्म में प्रमुख व्रत-त्योहारों के मौके पर व्रत रखने की परंपरा है। तीज-त्योहार पर हिंदू धर्म में व्रत रखना एक अभिन्न अंग माना जाता है।

व्रत और उपवास के लाभ

व्रत करने से मनुष्य की अंतरात्मा शुद्ध होती है। इससे ज्ञानशक्ति, विचारशक्ति, बुद्धि, श्रद्धा, मेधा, भक्ति तथा पवित्रता की वृद्धि होती है, अकेला एक व्रत अनेकों शारीरिक रोगों का नाश करता है।
व्रत और उपवास को कई लाभों से जोड़ा गया है, जैसे कि आत्म-शुद्धि, मानसिक शांति, ईश्वर की कृपा, और सांसारिक दुखों से मुक्ति का साधन है। व्रत और उपवास को धार्मिक और आध्यात्मिक अनुष्ठानों के रूप में महत्व दिया गया है।

नियमतः व्रत तथा उपवासों के पालन से उत्तम स्वास्थ्य और दीर्घायु प्राप्त होती है । शास्त्रों में कहा गया है, ‘व्रियते स्वर्गं व्रजन्ति स्वर्गमनेन वा’ अर्थात् जिससे स्वर्ग में गमन अथवा स्वर्ग का वरण होता हो। व्रत रखने से भगवान के प्रति अपनी श्रद्धा, भाव, भक्ति और समर्पण का भाव आता है।

व्रत और उपवास में अन्तर

व्रत और उपवास के बीच अंतर को स्पष्ट किया गया है। व्रत में भोजन किया जा सकता है, जबकि उपवास में पूरी तरह से भोजन से परहेज करना पड़ता है। कुछ विद्वानों का कहना है कि वास्तव में व्रत और उपवास दोनों एक ही हैं। ऋषियों, आचार्यों ने तपस्या, संयम और नियमों को उपवास और व्रत का समानार्थक माना है।

व्रत और उपवास साधना का एक महत्वपूर्ण अंग हैं। संस्कृत में ‘उप’ का अर्थ है ‘समीप’ और ‘वास’ का अर्थ है बैठना – अर्थात परमात्मा का ध्यान लगाना, उनकी जप-स्तुति करना। जब शुद्ध मन से आप ईश्वर के पास रहने की कोशिश करते हैं तो इसे उपवास कहते हैं।

कुछ या सभी भोजन, पेय या दोनों के लिये बिना कुछ अवधि तक रहना उपवास कहलाता है। उपवास पूर्ण या आंशिक हो सकता है। यह बहुत छोटी अवधि से लेकर महीनो तक का हो सकता है। ये कायिक, वाचिक, मानसिक, नित्य, नैमित्तिक, काम्य, एकभुक्त, अयाचित, मितभुक, चांद्रायण और प्रजापत्य के रूप में किये जाते हैं।

॥ श्रीरस्तु ॥
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श्री हरि हरात्मक देवें सदा, मुद मंगलमय हर्ष।
सुखी रहे परिवार संग, अपना भारतवर्ष॥
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┉ संकलनकर्ता ┉
श्रद्धेय पंडित विश्‍वनाथ प्रसाद द्विवेदी
‘सनातनी ज्योतिर्विद’
संस्थापक, अध्यक्ष एवं प्रबंध निदेशक
(‘हरि हर हरात्मक’ ज्योतिष)
संपर्क सूत्र – 07089434899
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